खञ्जर चला रहा है…

खञ्जर चला रहा है जिसमें धार नहीं है
इतना तो कम अक्ल मेरा यार नहीं है
बस एक बार मुस्कुराकर देख ले मुझे
मौत के किसी सामान की दरकार नहीं है

कहता है डूबायेगा मुझे दरिया के बीच में
कश्ती में उसके साथ कोई पतवार नहीं है
बदल गया है अब वो पर ऐसा नहीं लगता
आशिक है मेरा यार कोई सरकार नहीं है

तोड़े है घरौंदे इन हवाओ ने इस कदर
बाग है बागबां भी है पर बहार नहीं है
धोखे से जीत जाये बाजी तो भी ग़म नहीं
उसकी जीत में भी मेरी हार नहीं है

दिल से…………

नवल गीतों से नयनों का नर्तन मिला

प्रीत  को  जब  तुम्हारा समर्पण मिला
गीत  को फिर  नया  एक दर्पण मिला
तन   सुलगता  रहा यज्ञ की  अग्नि में
मन  को  पूर्णाहूति  में ही तर्पण मिला

सुप्त   आशायें    गीत   रचने     लगी
प्रेम  की  साधना  से  भी बचने   लगी
विरह  की  वेदना को स्वर  जब  मिले
राधा के चरणों में श्याम अर्पण  मिला

देह  उलझी  रही  अपने  षड्यंत्रो   में
प्राण  भी दे  रहा  अपना स्वर मंत्रों में
थी अलौकिक सी आभा  ध्रुव  तारे में
अपलक दृष्टि का जब समर्थन  मिला

वेदो  की  वो    ऋचाये   अधूरी   रही
मन  में  दोनों ही  के इतनी  दूरी   रही
स्वर   आरोह  के   मद्धम   होने   लगे
नवल गीतों से नयनों का नर्तन मिला

यूं ही चलती रहे कविता

अगर सृजन एक यज्ञ है तो मेरे शब्द  बन जाये  समिधा
कभी व्यञ्जना, कभी लक्षणा, कभी  बन जाये अभिधा
स्वस्तिवाचन  प्राण हो, और श्वास से  अभिमंत्रित स्वाहा
पूर्णाहूति हो जीवन की तब, भी कण्ठ  में गूञ्जे कविता

हैं धरा पर समय  कितना, इसकी चिन्ता  मुझे  नहीं पर
गीत रचकर नित नये यूं रहूं सदा  काव्यपथ पर अग्रसर
हृदय के अन्तिम खण्ड से भी करूं पीड़ा का आलिङ्गन
देह  की अन्तिम  श्वास  से भी प्रस्फुटित  होगी  कविता

मित्र  मेरे  शपथ  लो  तुम, हाथ  में गङ्गा  जल    लेकर
अश्रुबिन्दू न छलकाओगे,मेरी देह को कांधे पर रखकर
अग्नि समर्पण होगा जब, तुम खुद को  ही ढांढस  देना
और  कहना   इस जगत में, यूं ही  चलती  रहे कविता

अभिलाषाएं कितनी ही है, पर  देह की अपनी सीमा है
वर्जनाओं   के चक्रव्यूह  में, सब कुछ  धीमा  धीमा  है
जाने कब पाखी इस तन का पिञ्जरा खोल उड़  जाये
उसके फड़फड़ाते परो से, भी   निकलती   रहे कविता

दिल से…..

वो यादें पुरानी रही ना….

मुहब्बत की अब वो निशानी रही ना
मेरी उम्र में अब जवानी रही ना
जिसे सुनते ही नींद आती थी मुझको
बचपन की अब वो कहानी रही ना
वो आती थी अक्सर मेरी महफिलों में
अब मेरे गीतों की वो दीवानी रही ना
वो गिल्ली वो डण्डा, वो कंचो का खेल
वो बातें वो यादें पुरानी रही ना
वो बस्ती वो मस्ती वो गलियां वो राहें
अल्हड़ सी वो कारस्तानी रही ना
कभी तैरा करती थी कागज़ की नावें
वो दौलत मेरी खानदानी रही ना
मेरी बगिया में फूल ढेरो है लेकिन
जो महकाये मुझको रातरानी रही ना
मैं दरिया सा बेफिक्र बहता था लेकिन
मेरी मौजों में अब वो रवानी रही ना

दिल से……

मञ्जिल कितनी दूर है…..

पीछे मुड़कर मत देखो, रास्ता कितना तय किया है
आगे पथ प्रदर्शक देखो, कि मञ्जिल कितनी दूर है

थके हुए हो मगर अपना रास्ता तुमको ही तय है करना
पथरीले राहों में फैले कंकड़-पत्थर से क्यूं है डरना
क्यूं डरना इन उपहासों से, प्रतिक्रिया कोई मत देना
धीरज अपना मत खोना कोई सरल मार्ग मत चुन लेना
विपदाओं का क्या है वो तो आती और जाती रहती है
लेकिन जीवन की सच्चाई भी बात यही बस कहती हैं
दोष पथिक का नहीं जरा भी रास्ता खुद मजबूर है
आगे पथ प्रदर्शक देखो, कि मञ्जिल कितनी दूर है

राह सफलता की बन्धु पर इतनी भी आसान नहीं है
कौन है अपना कौन पराया इसकी भी पहचान नहीं है
यह तुम्हें ही तय करना है कौन खरा और कौन है खोटा
स्वीकारो जो साथ तुम्हारे, चाहे बड़ा हो या हो छोटा
किसी मुसाफ़िर को देखो तो झुककर उसे प्रणाम करो
तुमने अब तक क्या पाया है इसका न अभिमान करो
अपना जीवन खुद गढ़ने वाले हम सब वो मजदूर है
आगे पथ प्रदर्शक देखो, कि मञ्जिल कितनी दूर है

दिल से……

रही ये प्यास अधूरी क्यूं…..

हम तुम में इतना सन्नाटा, प्रश्नचिन्ह सा लगता है
यूँ कहते कहते मौन हो गए, कही न बात पूरी क्यूँ
इन शिलालेखों पर अभिमंत्रित सी यह मौन वेदनाये
अङ्कित कर ही दी हमने, थी ये इतनी जरूरी क्यूँ
जलवायु के परिवर्तन का स्वागत भी तो हो सकता था
ऋतुचक्र को समझ न पाये ऐसी ये मजबूरी क्यूँ
बरसे बादल, जब भी धरती ने आह्वान किया
फिर भी कंठ शुष्क रहा, रही ये प्यास अधूरी क्यूँ

दिल से………

फिर घना अंधेरा …..

फिर घना अंधेरा अकेले दीपक को छल गया
मन कलुषित कपट भरा सत्य के आगे चल गया
मौन रहे सारे पक्षधर सदा की तरह इस बार भी
शकुनि के पांसो के आगे धर्मराज भी बहल गया
मत रचो षड़यंत्र नये अब, मत चलो अब कोई चाल
झूठ तुम्हारा स्वार्थ साधे देखो सरपट निकल गया
मैंने तो सोचा दिनभर सूरज मेरे साथ रहेगा, पर
जुगनुओं का षड्यंत्र देख अस्ताचल पर ढल गया

दिल से…..